"एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग, जब जी चाहे एक नयी दुनिया बसा लेते हैं लोग", सुना था लोग प्लास्टिक सर्जरी कर अपने चेहरे की बदसूरती को छुपा लेते हैं...पर क्या इस दुनिया में कोई ऐसी सर्जरी भी है...जो उनके ज़मीर की बदसूरती को दूर कर सके...क्या ऐसी कोई दवा है जो उनकी सोच की गन्दगी को साफ कर सके...ऐसा कोई उपाए जो उनकी उस बदसूरती का इलाज कर सके जो उनके बाहरी शरीर पर नहीं दिखती...
Sunday 31 July 2011
एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग...
"एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग, जब जी चाहे एक नयी दुनिया बसा लेते हैं लोग", सुना था लोग प्लास्टिक सर्जरी कर अपने चेहरे की बदसूरती को छुपा लेते हैं...पर क्या इस दुनिया में कोई ऐसी सर्जरी भी है...जो उनके ज़मीर की बदसूरती को दूर कर सके...क्या ऐसी कोई दवा है जो उनकी सोच की गन्दगी को साफ कर सके...ऐसा कोई उपाए जो उनकी उस बदसूरती का इलाज कर सके जो उनके बाहरी शरीर पर नहीं दिखती...
Friday 29 July 2011
बस एक एहसास हो...
तुम अक्सर मेरे साथ होते हो...
पास
ना होकर भी गोया पास होते हो...हर एक चीज़, हर एक पहलू में तुमको महसूस करती हूँ...
कभी हवाओं में, कभी फिजाओं में महसूस करती हूँ...
तुम ना जाने कहाँ हो...
फिर भी ऐसा लगता है...
हाथ अगर बढ़ाउंगी तो छू लुंगी तुमको...
तुम ना जाने कहाँ हो...
फिर भी ऐसा लगता है...
अपने सच्चे इंतज़ार से पा लुंगी एक दिन तुमको...
पास नहीं हो तुम मेरे...
बस एक एहसास हो...
फिर भी पल पल मेरे साथ हो...
तुम क्या हो बता दो मुझे...
कहीं ऐसा ना हो...
तनहाइयों से मुहब्बत कर लूं...!!!
Wednesday 27 July 2011
बीत गया...
ऐतबार का मौसम बीत गया...
मेरे
प्यार का मौसम बीत गया...वो आये हैं एक बार फिर मेरी ज़िन्दगी में..
पर अफ़सोस बहार का मौसम बीत गया...
हर वो मौसम बीत गया जिससे मुझे प्यार था...
हर वो इंसान रूठ गया जिससे मुझे प्यार था..
वो एक बार फिर दस्तक दे रहे हैं दिल पर...
पर अफ़सोस बरसात का मौसम बीत गया...
कैसे कर लूं उनका ऐतबार...
कैसे कर दूं प्यार का इज़हार...
उनकी मुहब्बत को क़ुबूल करना...
मुझे कर रहा है ये ख्याल बेकरार...
वो खड़े हैं प्यार का नजराना लेकर...
पर अफ़सोस इंतज़ार का मौसम बीत गया...!!!
Monday 25 July 2011
मेरा घर...
मुझे तो प्यार भरा एक घर चाहिये...
दीवारे हों खुश्बूओं से बनी...
और घर तेरे प्यार के रंग में रंगा होना चाहिए...
नहीं चाहती मैं सजावट की कीमती चीज़ें...
और फर्श दरीचे संगमरमर की..
मुझे बस तेरी प्यार भरी एक नज़र चाहिए...
फूलों की सेज न दे सको तो ना सही...
ना करा सको मुझे सैर चांदनी की तो ना सही...
पर फूलों की तरह मुझे तेरे प्यार में सदा एक ताजगी चाहिए...
नहीं चाहिए मुझे शानो शौकत...
नहीं चाहिए मुझे लोगों की जय जयकार...
पर मुझे तेरे प्यार में सदा एक सादगी चाहिए...
कदम कदम पर कांटे हैं...
कदम कदम पर है ठोकरें...
इस जीवन के कठिन डगर पर...
मुझे मेरा हमसफ़र...
मेरा मुहाफ़िज़ चाहिए...!!!
Monday 18 July 2011
तू ही मेरा प्यार है...
वैसे तो मिलेंगे हज़ारो यहाँ...
पर तेरी नजरो में कुछ खास है...मैंने देखा है सबके है साथी यहाँ..
पर तेरी कुछ और ही बात है...
झुक जाती है मेरी नज़रें...
जब टकराती हैं तेरी निगाहों से...
जाने क्या मेरा ये अंदाज़ है...
छेड़ती हैं मुझे मेरी सखियाँ...
लेकर तेरा नाम...
क्या तेरे मन में है मेरी तस्वीर...
इस बात से दिल अनजान है...
तुझे पाने की हसरत नहीं है मुझे...
क्युंकि तेरी ख़ुशी में है मेरी ख़ुशी...
समझ नहीं आता...
मेरे ये क्या जज़्बात हैं...
तेरी नज़रों में मुझे मेरा अक्स नज़र आता है...
पर तेरे सपनो, तेरे ख्यालों में मै हूँ या नही...
इस हकीकत की मुझे तलाश है...
दिल है मेरा भरा कई एहसासों से...
कहना चाहती हूँ तुझसे की..
सिर्फ...सिर्फ तू ही मेरा प्यार है...
Friday 15 July 2011
कश्मकश ज़िन्दगी की...
कई बार सोचती हूँ कि क्या सच में कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो हमें उलझाये रखतीं हैं... क्या हम इस काबिल भी नहीं की कुछ जज्बातों, कुछ बातों को समझ सकें... क्यूँ हम खुद को हज़ार परतों में बांधकर रखते हैं...भागते रहते हैं सच से...पर कहाँ तक भागेंगे...जहां देखो ज़िन्दगी की उलझने अपना सर उठाये खड़ी रहतीं हैं...सुबह ही सुबह कॉलेज के लिए बड़ी ख़ुशी ख़ुशी तैयार होती हूँ...मलाड के साफ सुथरे रोड पर(ज्यादातर रोड में खड्डे ही होते हैं) कानों में हेड सेट घुसेड़े अपने बस स्टॉप पर पहुँचती हूँ...तब शुरू होता है सिलसिला सोचों का...और मेरे भटकने का...जब बस कि कतार में किसी बुज़ुर्ग को देखती हूँ तो मन में कई सौ सवाल खड़े हो जाते हैं...जब भागते लोगों के चेहरे के शिकन पर नज़र जाती है तो ज़िन्दगी की कश्मकश का एहसास होता है...बस में चढ़ने की होड़ में लोग भूल जाते हैं कि उनके आगे एक महिला खड़ी है...और सभ्यता, इंसानियत नाम की भी कोई चीज़ होती है...पर इसमें उनका भी क्या कुसूर है...किसी न किसी तरह बस में सवार होने का सौभाग्य मिल ही जाता है...और बैठने के लिए सीट भी...सीट पर बैठने के बाद नज़रें बाहर ही न जाने क्या ढूंढती रहती है...शायद ये भी अच्छा तरीका है सच से मुंह फेरने का...क्युंकि बस में खड़े लोगों के चेहरे को देखकर फिर कई सौ सवाल मन में खड़े हो जाते हैं...पर कोई कर भी क्या सकता है...शायद यही समस्या हर मुम्बईकर जो सीट पर बैठा होता है उसके मन में हो...खैर कैम्पस पहुंचकर ये दुनिया बहुत पीछे छूट जाती है...कैम्पस में होने का अपना ही मज़ा होता है...चारो तरफ हरियाली...सुकून पसरा हुआ...जो मुंबई के शोर-शराबे और भीड़ वाले दुनिया से बिलकुल अलग है...यहाँ आने के बाद हमारा अपना ही एक जहां होता है...जहां मौज मस्ती और दोस्ती का...सिर्फ दोस्त( मेरे ख्याल से...इस जगह मैं गलत भी हो सकती हूँ)साथ होता है...जब युनिवर्सिटी में होती हूँ तो भूल जाती हूँ कि बाहर की दुनिया सिर्फ पीछे छूटी है...उससे पीछा नहीं छूटा है...
कई बार तो लगता है...ज़िन्दगी की बागडोर अगर हमारे हाथों में होती तो कितना अच्छा होता...हम जो चाहते वो करते...लबों पर कभी ख़ामोशी न रहती...सदा मुस्कुराते ही रहते...और लोगों के चेहरे पर भी मुस्कराहट लाते...पर कई सौ सवालों के बीच कई सौ ख्वाहिशें भी अपना सर हमेशा उठाये रखतीं हैं...और हम फिर उन्ही सवालों के बीच खड़े रह जाते हैं...सोच का एक किनारा पकडे हुए...!!!
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