Friday 29 June 2012

आधुनिक भारत में पिछड़े हम...

परंपरा, संस्कृति, मजहब या धर्म यहां जितने भी शब्दों का उच्चारण हुआ है, क्या इनको प्रत्येक व्यक्ति के जिंदगी की सही दिशा को निर्धारित करने का मानक मान लेना चाहिए? क्या यही वह शब्द हैं जिनके बिना भारत के लोगों की जिंदगी बड़ी बिखरी बिखरी लगती है? यदि ऐसा है तब तो प्रत्येक व्यक्ति को खुश, शांत और संपन्न होना चाहिए क्योंकि प्रत्येक मजहब या धर्म शांति और संपन्नता का मार्ग प्रशस्त करता है. परंतु ऐसा है नहीं आज हर दूसरे कदम पर मिलनेवाला व्यक्ति दुखी, अशांत और क्षुब्ध है और इसी शांति और सुख को प्राप्त करने के लिए इंसान ना जाने कहां कहां और क्या क्या करता फिरता है? बाबाओं, मौलाना, यहां तक की झाड़-फूक करनेवालों के पास जाने से भी लोग परहेज नहीं करते और ऐसे में सुख-शांति पाने की बजाए और कई नई उलझनों में फंस जाते हैं.

इन बातों को यहां लिखने का तात्पर्य धर्म या मजहब पर उंगली उठाना नहीं है बल्की विकास की राह पर चल रहे भारत के पिछड़ेपन को केंद्रबिंदु में लाना है. आज हमको यह कहते हुए बड़ा फ़ख्र महसूस होता है कि हम विकास की राह पर अग्रसर हैं, हमारी सोच बड़ी आधुनिक होती जा रही है. पर क्या कभी यह भी सोचने का कष्ट हमने उठाया है कि २१वीं सदी में भी भारत के पति पत्नियों पर हाथ उठाने को मर्दानगी का एक लक्षण मानते हैं. भारतीय समाज में बलात्कार या शारिरिक उत्पीड़न के मामलों में आज भी औरत को ही दोषी करार दिया जाता है और जो पुरूष ऐसा कूकर्म करते हैं वह बड़ी आसानी से साफ साफ बच जाते हैं. आज भी अंतर जातीय विवाह को एक पाप माना जाता है. इस मार्डन भारत में दो व्यक्ति जो वयस्क और जिम्मेदार हैं वह अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी नही चुन सकते. आधुनिक होने की माला जपते जपते हम अपने ही अंदर छुपे दूसरे चेहरे को पहचान नही पा रहे हैं. पिछले कई सालों से शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहने पर भी लड़कियों के लिए यह सुनना की आखिर करना तो चुल्हा चौका ही है कोई अचरज की बात नही है. हमारे ही समाज के एलीट क्लास में हो रही कन्या भ्रूण हत्या हमें भारत के किस विकास के चेहरे से परिचित करनावा चाहती है?यह समझना काफी मुश्किल है.  

हम खुद को आधुनिक कहने में एक पल भी संकोच नही करते परंतु यह आधुनिकता मार्डन कपड़ों तक ही सीमित हो गई है अभी पूरी तरह विचारों तक नहीं पहुंची. जिन्होने आधुनिकता पर अपनी नई सोच बनाई है उनका इसी संस्कृति प्रधान देश में काफी विरोध किया जाता है. साथ ही यह कहना भी अतिश्योक्ति नही होगी कि समाज में बाहर आकर आधुनिकता और विकास पर बड़े बड़े भाषण देनेवाले लोग अपने ही घर में इन शब्दों की परिभाषा बदल देते हैं. आज हमें दोहरी जिंदगी जीने की आदत सी पड़ गई है, अपने लिए कुछ और, लोगों के लिए कुछ और. एक ही पहलू को हम दो चश्में से देखने लगे हैं. आज हमें खुद को आधुनिक और मार्डन साबित करना पड़ता है छोटे कपड़े पहनकर और सेक्स जैसे शब्दों को खुले आम लेकर. आज भी सलवार-कमीज या बुर्का पहननेवाली लड़की बहनजी”  या आपा ही है, भले ही उसके विचार कितने ही आधुनिक क्यों ना हो. यह सब देखते हुए हमें एक बार फिर सोचना होगा की क्या यही है हमारा विकसित भारत? क्या इसी भारत के सपने हम देख रहे हैं?