Tuesday 11 October 2011

बचपन


कितना हसीं था वो बचपन
हर चीज़ कितनी प्यारी थी

सबको मासूम लगती थी
मां की बड़ी दुलारी थी
छल, कपट, हसद, जलन
क्या होती है बला
इल्म ही नहीं था इसका
दुनिया बड़ी सुन्दर,बड़ी हसीन नज़र आती थी
अनजान थी दुनिया से
सब लोग भले लगते थे
संग कितनी नादानी थी
हर तरफ रंग थे
खुशियों की बरसात में मन झूमता था
हर चीज़ मन के मुताबिक़ थी
वो हँसना, वो मुस्कुराना
भरी दोपहर में सहेलियों के साथ खेलने निकल जाना
तब हवाएं भी गुदगुदाती थी 
थी किसी चीज़ की फ़िक्र
दुनिया का झमेला था
साथ था कुछ तो बस वो नानी की कहानी थी
आंसू थे, दर्द थे
सोचो का ये कारवा था
दिल को हर चीज़ बड़ी आसानी से भा जाती थी
वो बचपन की यादें, सुन्दर तस्वीर सी यादें
रोती आँखों को भी हसा जाती है और 
हर पल ये कहती है
कितना हसीन था वो बचपन
हर चीज़ कितनी प्यारी थी

हज़ारो जज़्बात...

हज़ारो जज़्बात थे मेरे दिल में 
हज़ारो ऐसी बातें जो दिल ने
चाहा था आपसे बाटूँ, आपको 
बताऊँ, पर कभी आपके मिजाज
बदले हुए लगे, तो कभी हम आपसे 
खफा हो गए. ज़िन्दगी जिस रफ़्तार
से बढती रही, उसी रफ़्तार से मेरे
जज़्बात भी बदलते रहे, उम्मीद का
दामन छूटने लगा. महसूस हुआ 
की कितने नादाँ थे हम जो
अपनी हर ख़ुशी आपसे जोड़ते रहे
सोचा मेरे हर ख़ुशी, हर गम
हर हालात में आप मेरा साथ देंगे
एक दोस्त की तरह, एक भाई की 
तरह. पर हर पल हमें एहसास
होता रहा की मेरे उम्मीदों का 
घरौंदा ढह जाने के लिए है और
आपको यह इख्तियार है की मेरे 
मेरे हर उम्मीद को आप तोड़ दें
पर फिर क्यूँ आप हमें 
भरमा रहे हैं, क्यूँ फिर नादाँ दिल को 
ये समझा रहे हैं
की आप हो मेरे हर ख़ुशी 
हर गम में. आप क्यूँ ये
सोचो का महल खड़ा कर रहे हो
मेरे सोचो को फिर 
गलत साबित कर रहे हो
ऐसा क्यूँ होता है की मेरी
हर उम्मीद, हर सोच हर
मोड़ पर ख़तम हो जाती है
गलत साबित हो जाती है
एक लंबा सफ़र तय करने के बाद 
हाथ सिर्फ इतना लगता है 
की मेरी सोच कभी मेरा 
साथ नहीं देती
तो कभी मेरा साथ 
सोचो को गुमराह कर देती है
हर वक़्त साथ एक सवाल ,एक सोच रहती है... 

Sunday 7 August 2011

कितनी बार वादा किया था खुद से

कितनी बार वादा किया था खुद से कि भूल जाउंगी...नहीं याद करुँगी तुम्हे और...तुम्हारी उन बातों को....उन शरारतों को...जो मेरी आँखों को पनियाला कर देती हैं...हर बार खुद से वादा करती हूँ...अब नहीं खर्च होगी मेरी कलम की स्याही तुम पर...एक लफ्ज़ भी नहीं लिखूंगी...तुम को याद करके...पर हर बार ये वादा न जाने कहाँ छुप जाता है...न जाने किस रजाई के नीचे...किस किताब के पीछे...कि मुझे मिलता ही नहीं...फिर एकबार वादा किया है....नहीं लिखूंगी तुम्हारे बारे में...खासकर तुम्हारे मुस्कराहट के बारे में...जिसे अक्सर समझने में नाकाम हो जाती हूँ मैं...

Monday 1 August 2011

खफा खफा सी है...कशमकश में है...



वो ऐसा कौन सा लम्हा होता है जो हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है...की आजतक जो भी किया,जो भी समझा सब एक फरेब था...धोखा था, खुद को बहलाने का एक झूठा बहाना...कुछ लोग जो सच्चे लगते हैं...वो भी अपने आप को छुपाये होते हैं...लाख परतों में...उसे कभी नहीं लगा था कि वह इस तरह दो राह पर आकर खड़ी हो जाएगी...जिसे कभी दोस्त भी नहीं समझा था...वो भी मुहब्बत का दावेदार होगा...क्या मुहब्बत जैसा पाकीज़ा जज्बा इतना सस्ता है...कि उसका मजाक इस तरह सरे बाज़ार उड़ाया जाये...बार बार उड़ाया जाये...उसे वैसे भी लोगों के झूठे मुहब्बत पर कभी ऐतबार नहीं था...इस दुनिया की होकर भी इस दुनिया की कहाँ थी वो...खफा खफा सी लगती थी...पर जीना उसने भी सीख लिया था...पर आज उसे खुद से नफरत हो रही थी...उसके बनावटी चेहरे को देखकर...ज़िन्दगी की कड़ी धूप में जिसे भी छांव समझा...सब कड़कते धूप की तरह सर पर सवार हो गये...क्यूँ उसकी बेऐतबारी को कोई ऐतबार में बदल सका...जब भी किसी पर ऐतबार करती...तो टुकड़ों टुकड़ों में उसके विश्वास की कड़ी बिखर कर रह जाती...उसे दुःख इस बात का था की लोग उसे सही साबित कर देते थे...कि इस दुनिया में मुहब्बत सिर्फ मजाक बनने के लिए है...लोगों के गंदे जुबान से सरे बाज़ार उछलने के लिए है...जिसका कोई मुकम्मल ठिकाना नहीं है...उसे आज फिर यकीन हो गया था कि...शायद वो कभी किसी से मुहब्बत नहीं कर पायेगी...उसे तुमसे मुहब्बत नहीं थी...
दोस्त भी कहाँ समझा था उसने तुम्हे...
वो तो तुम्ही जाने किस दुनिया में जी रहे थे...
चेहरे पर चेहरे लगाये घूम रहे थे...
नकाब उतरता हुआ महसूस हुआ...
तो तड़प उठे...
पर ये भी ठीक है...
कहाँ किसी ने अपनी गलती को माना है...
अपनी गलती को कौन स्वीकारता है यहाँ...
पर वो आज भी कश्मकश में खड़ी है...ये सोचती हुई...कि ऐतबार करूँ या नहीं...
उसके इन सवालों का जवाब कौन देगा...!!!