Tuesday 9 October 2012

ज़िंदगी मेरी...फैसला किसी और का...




आखिरकार ऐसी बातें ही सुनने में आ रही हैं कि पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी और बिलावल भुट्टो को प्यार करने के एवज में कोड़े या फिर पत्थर मारकर मौत की सजा देनी चाहिए. इसके विपरीत कोई अन्य उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी. आखिरकार बरसों से ऐसे ही तो फैसले सुनाए जाते हैं. इस तरह का फैसला बांगलादेश के इसलामिक धर्मगुरुओं की तरफ से आया है. पितृस्त्तात्मक या यूं कहें कि पुरूषो के बनाए समाज में महिलाओं की आजादी एक पुरूष ही तय करता है. उसे कब, कितना और किससे कैसे संबंध बनाने है, इस पर भी उसकी मर्जी नहीं चलती. उसे बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि उसके दायरे क्या हैं?   
जिंदगी में अपने पति से धोखा खाने पर उसे कोई और रास्ता इख्तियार करने की आजादी आज भी हमारा समाज एक औरत को नहीं देता. वहीं इस बात को दोहराना चाहती हूं कि हिना रब्बानी कोई आम औरत नहीं है जिनके लिए ऐसी बयानबाजी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर की जा रही है बल्कि वह पाकिस्तान के विदेश मंत्री है जो एक बहुत ही ताकतवर पद है. परंतु यदि आपको लगता है कि पढ़ी लिखी महिलाएं अपने जीवन का फैसला लेने में सक्षम हैं और आत्मनिर्भर हैं, तो आपको बता दें कि ऐसा बिल्कुल नहीं है. ऐसी कई महिलाएं हैं जो सिर्फ घर का चुल्हा संभालने के लिए ही पैदा हुई हैं. 
पिछले दिनों ऐसी कई महिलाएं अखबारों की सुर्खियों में रहीं जो आत्मनिर्भर थीं लेकिन ऐसे अंधेरे में खो गईं जहां से वापस आना नामुमकिन था. फिज़ा मोहम्मद उर्फ अनुराधा बाली, गीतिका, मधुमिता शुक्ला, भंवरी देवी ऐसी महिलाएं जिन्हे समाज ने आजादी तो दी लेकिन समाज में आजाद विचारों से रहने का हक नहीं दिया. इनके पतन का कारण भले ही अलग अलग था लेकिन इनका हश्र एक ही था. एक पुरूष के लिए आज भी महिलाएं सिर्फ इस्तेमाल की वस्तु हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं. आज २१वीं सदी में भी महिलाओं के जीवन का फैसला कोई और ही ले रहा है. कभी पिता, कभी भाई, कभी पति तो कभी उसका बेटा. समाज ने हमेशा से ही महिलाओं को सहन करना और पुरुषो को शोषण करना सिखाया है. महिलाओं की आजादी भी पुरूषों की मोहताज है. वह जब चाहे, जहां चाहे महिलाओं के पंख कतर सकता है.