Friday 13 December 2013

एक पुरूष के लिए...

 
कितना आसान होता है
एक पुरूष के लिए
'बस' कहकर बात
को खत्म कर देना
पर औरत के जहन पर
वही बात बोझ होती है
मानो चट्टान पर कोई
करता हो लगातार चोट
ना जाने कितनी बातें
कितने एहसास
कितनी भावनाएं
दफ्न होती है
उसके सीने में
ना चाहते हुए भी
कह देती है वो
एक सैलाब सा जो होता है
उसके सीने में
पर कह देने के बाद
खुद अफसोस करती है
और सोचती है
क्यों कह दिया
वह सब जो सीने में था
एहसास की तरह
अब ना रहा उसका कोई मुल्य
कह देने के बाद
कितना आसान होता है
एक पुरूष के लिए
रिश्ता बना लेना किसी के साथ
और यह कहते हुए खत्म भी कर देना कि
'तु्म्हें अंधेरे में नहीं रखना चाहता,
जो हुआ गलत हुआ,
माफी चाहता हूं'
कितना आसान होता है
एक पुरूष के लिए माफी मांग लेना
हालांकि वह माफी भी
काफी सोच समझकर मांगता है
नफा-नुकसान देखने के बाद
यह सोचते हुए कि कल को
वह दोषी ना करार दिया जाए
उसका दामन साफ रहे
कितना आसान होता है
एक पुरूष के लिए
अपना दामन साफ रखना

Monday 8 July 2013

अपना सा था वो दोस्त...

(इस खूबसूरत चित्र के फोटोग्राफर हैं राजू गुप्ता)

तुम्हारी बातों को सुनकर ना जाने क्युं मन भर आया था..आंखों में कुछ चमकते मोती भी इकट्ठा हो गए थे...रूख के दूसरी तरफ कर लेने के बाद भी अपने आंखों में आए आंसुओं को तुमसे छुपाने में नाकाम रही थी...और सिर्फ आंसुओं को छुपाने में ही क्यों, कई जगह तो नाकाम रही थी मैं...शायद उस दोस्ती में भी जो तुमसे अंजाने में ही बंध गया था...कहां बांधा कभी खुद को तुम्हारे सामने..कि हमेशा लगता रहा तुम जुदा नहीं हो मुझसे...मेरा ही अक्स हो...और नाजाने कितनी बार दिल दुखाया तुम्हारा..इसी नादानी में...ऐसा महसूस हुआ था कि तुम्हारे साथ खुश होती हूं...ज्यादा, बहुत ज्यादा...तुम भी तो खुश नज़र आते थे हमेशा...कितनी शामें यूंही बिताई थी साथ में...बेवजह, कुछ हासिल ना हो जानेवाली बातों के बीच...

तुमने कहा था, ‘अब हम नहीं मिलेंगे, लौटा दुंगा तुम्हारी सभी चीजें जो तुमने दी थी मुझे,’ यह कहकर ना जाने किस हिसाब किताब में जुट गया था वो...टूथपेस्ट, टूथब्रश, वो किताबें और पानी के बहुत से बॉटल, तुम्हारा दिया हुआ आचार और हां वो चॉकलेट भी, जो तुमने अभी हाल ही में दिया था...ना जाने क्या क्या कहता रहा था वो...ये कहते हुए उसकी आंखों में चमकते पानी को महसूस किया था मेरे दिल ने... मैंने सोचा कह दूं उससे कि बस इतनी ही चीजें...शायद तुम्हें याद नहीं...आओ याद दिलाऊं...लौटा देना इन चीजों के साथ उस वक्त को भी जो व्यतीत किए थे तुम्हारे साथ...उन हंसी के पलों को, और उन पलों को भी जिसमें आंसू बिखेरे थे...क्या उन पलों को लौटा पाओगे जो खर्च किए हैं तुम पर...उन लम्हातों को जिनमें ना जाने कितनी बार सोचा था तुम्हारे बारे में...सच, हिसाब किताब में बहुत बुरे हो तुम...

कभी कभी अतीत के पन्नों को पलटना इतना अजीब क्यों लगता है? हंसी के पल होते हुए भी आंखों को नम कर जाते हैं यह बीते हुए पल...किसी के बिछड़ने क दर्द होता है तो किसी नए के मिलने की खुशी...बार बार क्यों लगता है कि वक्त फिर लौट गया है वहीं जहां से बढ़ आई थी आगे...बहुत आगे...वक्त भी कैसा अजीब है...किसी रूप बदलते बहरूपिया की तरह...पर यह बहरूपिया भी अच्छा लगता है कि अपने बदलते कई चेहरों के साथ हमें बार बार मजबूत होने की ताकत देता है...खुद से मुहब्बत करना सिखाता है...नफरत करना सिखाता है...गिरना और फिर संभलना सिखाता है...

Saturday 8 June 2013

ज़िंदगी यूं ही चलती रहे...





तुमसे कितनी बार कहा है कि मत किया करो ऐसा, मत बांधो खुद को किसी एक बंधन में क्योंकि मुझे एहसास होता है कि तुम घुटने लगते हो. कभी कभी तो तुम्हारी यह घुटन इतनी बढ़ जाती है कि तुम बेचैन हो जाते हो. कई बार कहा है पहले, आज फिर कह रही हूँ अगर दिल में कोई बात कोई दर्द होता है तो कह दिया करो कि खुद को आज भी तुम्हारी दोस्त समझती हूँ. पर तुमने ना जाने जिंदगी को किस परिभाषा में बांध रखा  है.

मैं पहले समझती थी कि जिंदगी इतनी आसान नही जितनी हम उसे समझते हैं पर आज मैं ही कह रही हू़ कि जिंदगी उतनी मुश्किल भी नहीं जितनी तुम उसे समझते हो. वैसे भी बताओ क्या मिला तुम्हे जिंदगी को इतनी संजिदगी से देखने के बाद. तकलीफ में हो ना, बेचैन भी हो? फिर क्युँ ना कुछ बच्चों की तरह कुछ पागलों की तरह मतलब मेरी तरह बर्ताव कर लो. शायद तुम्हे अच्छा लगे? पर ये भी जानती हू़ नहीं मानोगे तुम मेरी किसी बात को. कहाँ माना है तुमने आजतक? वैसे भी मेरी किसी बात पर कहाँ एतबार है तुम्हे. क्यु़ं दूर रखा है खुद को खुशियों से? मां से बाते करो, कभी पापा की भी तो सुनो, झांकने की कोशिश करो उनमें, शायद दिखे तुम्हेँ कि वो तुमसे कितनी मुहब्बत करते हैं. समझ जाओगे कभी तो कि तुम्हारे आसपास ऐसे कई लोग हैं जो तुमसे बहुत मुहब्बत करते हैं क्योंकि मेरे दोस्त दुनिया में मुहब्बत का सिर्फ एक ही रूप नहीं होता. समझो कभी तो कि खुशियों से तुम्हारा भी सरोकार है. खुद को बहने दो, कभी तो थंडी हवा को महसूस करो. 

यूँ ही नहीं कि तुम्हें बस यही कहना चाहती हू़, कहना तो बहुत कुछ है पर लफ्ज़ों की जुबान भी कासिर है. कल तुमसे बात हुई, शायद तुम्हे एहसास भी नही होगा कि तुम्हारे उस तरह चिल्लाने से मुझे कितनी तकलीफ पहुँची होगी. इसलिए नहीं कि तुम मुझपर चीख रहे थे इसलिए कि तुम्हारी उस झुंझलाहट में तुम्हारी बेचैनी, तुम्हारी कैफियत और तुम्हारे दर्द को समझ सकती थी मैं. पर मैं क्या कर सकती थी बस तुम्हे दिलासा देने के अलावा? इतना सबकुछ कह देने के बाद इंसान हल्का महसूस करता है पर मैं समझती हूँ कि तुम्हारी बेचैनी कम नही हुई होगी. ना जाने किस चीज की तलाश में भटक रहे हो? आस पास देखो शायद तुम्हे वो चीज़ तुम्हारे बहुत ही करीब मिले. 

कहना तो यह भी है कि किसी को भुलाने के लिए यह याद रखना कि उसे भुलाना है, बहुत अजीब बात है. कभी नही भूल पाओगे इस तरह. मेरी बात मानो और मत बांधो खुद को इतनी जंजीरो में, इतने उसूलों में...