Tuesday 13 May 2014

अंधेरी प्लेटफॉर्म की वह घटना...

जद्दोजहद वो नहीं थी जो हमारे ज़हन में चल रही थी... जद्दोजहद वो भी नहीं थी जो हम अपने लिए कर रहे थे... जद्दोजहद उन सवालों के लिए भी नहीं थी जिनके जवाब हम पिछले कई दिनों-कई महीनों से ढूंढ रहे थे...सवाल अच्छे जीवन का...एक दूसरे के हमसफर होने का...सवाल अपनी जिंदगी का...जद्दोजहद तो वो थी जो लगभग 6-7 साल की बच्ची अंधेरी के हार्बर लाईन के प्लेटफॉर्म नंबर 2 पर कर रही थी...जद्दोजहद जिंदा रहने की...जद्दोजहद खुद अपने ही मां के हाथों से बचने की...

अंधेरी जैसे भीड़भाड़ वाले स्टेशन पर भी उस गंदे से लिबास वाली बच्ची की दर्दभरी चीख को दूर-दूर तक सुना जा सकता था...वह और उसकी मां यकीनन ट्रेन में सामान बेचनेवाली या भीख मांगनेवाली कोई औरत रही होगी...पीछे वाले डब्बे से प्लेटफॉर्म पर उतरने के बाद अभी दो-तीन कदम ही आगे बढ़ाए थे कि किसी बच्ची के अगले डिब्बे में चीखने की आवाज आ रही थी...लोगों का एक झुंड उस ओर बढ़ा, पहले तो लगा कि शायद ट्रेन के नीचे उस बेहद डरावनी और चिल्लाती औरत का पति आ गया है इसलिए वह रो रही है...लेकिन कुछ ही पलों में पूरा माजरा ही बदल गया...वह औरत अपनी ही बेटी को जानवरों की तरह मार रही थी...और उसके अंगों को काट रही थी...कुछ लम्हें तो समझ ही नहीं आया कि हो क्या रहा है...वह बच्ची लड़खड़ाकर प्लेटफॉर्म पर आ गिरी और उसकी मां उसके पैरों को काटने लगी...दोनों चीख रही थीं...एक गुस्से में दूसरी दर्द में...अचानक ही मैंने उस बच्ची का हाथ पकड़ लिया और उसे उसकी मां से बचाने की बेकार सी कोशिश करने लगी...भीड़ ज्यादा जुट गई थी..पास ही खड़े एक आदमी ने जब उस औरत पर दो-चार ऐड़ियां जमाईं तब उस औरत(दूसरे शब्दों में कहूं तो उस बच्ची की मां)ने बच्ची को छोड़ा...

वह चीख रही थी कि “मेरा पति ही जब मुझे छोड़ गया तो ये और मैं जीकर क्या करेंगे, मेरी तो जिंदगी ही खराब हो गई”...और बार-बार अपनी बेटी को मारने के लिए झपट रही थी...खैर कुछ लम्हों तक यह चलता रहा और उसी व्यक्ति ने उस औरत को पुलिस के पास ले जाने की हिम्मत भी की...मैं वहीं १० फुट की दूरी पर खड़ी थी...दूसरी ओर देखा तो बोरीवली की ट्रेन प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर आ रही थी...उस तरफ बढ़ने के बाद फिर पलटकर देखा तो उस औरत की नंगी पीठ दिखाई दी...मैं ट्रेन में सवार हो अपने घर की तरफ बढ़ गई....

समय के काफी बीत जाने के बाद भी मन कहीं लग नहीं रहा था...उस बच्ची के बदन के सिहरन को... उसकी कपकपाहट को अपने हथेलियों में महसूस कर रही थी......उसकी चीख कानों में गूंज रही थी..और काफी देर तक जहन में यही चलता रहा कि जिंदगी की जद्दोजहद तो यह है...खुद के अस्तित्व को बचाने की... खुद को जिंदा रखने की...ये भी कि एक मां कैसे इतनी निष्ठुर और निर्दयी हो सकती है.....ना जाने और क्या-क्या सोचती रही...फिर ना जाने किस पहर नींद आई...यह भी याद नहीं...

Saturday 1 March 2014

तुम बिल्कुल वैसे नहीं हो...



तुम बिल्कुल वैसे नहीं हो
जैसा मैने सोचा था
लेकिन तुम वैसे भी नहीं हो
जैसा तुमने कहा था
तुमने तो कहा था कि
तुम बड़े भावुक हो
आंसू बहानेवाले
और उनको समझनेवाले
कई बार मैनें खुद
नमकीन कतरों से डूबी
तुम्हारी भूरी आंखों को देखा था
फिर आज क्यों तुम
मेरे दर्द, मेरे आंसुओं
मेरी तकलीफ, मेरी भावनाओं
को समझ नहीं पा रहे

किसी औरत का
मर्द की जिंदगी में आना
एक आम बात हो सकती है
जिंदगी का एक पन्ना
भर पलटना हो सकता है
लेकिन औरत के लिए
उसका पूरा जीवन बन जाता है
उसका पूरा इतिहास
जिसे बदलना आसान नहीं होता

कितना विश्वास दिलाया था तुमने
कितना प्यार है एहसास कराया था
तुमने
फिर आज क्यों ऐसा नहीं है
जैसा पहले दिखाया था तुमने
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Saturday 22 February 2014

मुहब्बत अब तस्वीर से हो जाती है...



मुहब्बत अब जीते जागते लोगों से नहीं
बल्कि उनकी तस्वीर से हो जाती है
कम से कम वह उसी तरह
दिखते हैं
जैसा देखना हम चाहते हैं
मुहब्बत का जवाब मुहब्बत से देते हैं
और शिकायत करने पर
रूठते भी नहीं और नहीं जाते छोड़कर कभी
इसलिए
मुहब्बत अब जीते जागते लोगों से नहीं
बल्कि उनकी तस्वीर से हो जाती है

Thursday 13 February 2014

वक्त...



कुछ लोग ज़िंदगी में बहुत अहम होते हैं उस 'वक्त' के लिए....लेकिन जैसे जैसे वह 'वक्त' बीतता है वह इंसान आम सा लगने लगता है...फिर 'वक्त' के बीतने के साथ साथ वह इंसान पीछे छूटने लगता है....धूंधला पड़ने लगता है और फिर ऐसा 'वक्त' भी आता है कि वह गायब सा हो जाता है जिंदगी से...हां कहीं किसी कोने में उसकी थोड़ी सी मौजूदगी बची रहती है...और जब हम उस मौजूदगी को महसूस करना चाहते, तभी महसूस करते हैं....पर इस पूरे मामले में जिस बात की सबसे ज्यादा भूमिका रही है, वह है 'वक्त' की.......'वक्त' कभी भी कुछ भी एक सा रहने नहीं देता....

Friday 13 December 2013

एक पुरूष के लिए...

 
कितना आसान होता है
एक पुरूष के लिए
'बस' कहकर बात
को खत्म कर देना
पर औरत के जहन पर
वही बात बोझ होती है
मानो चट्टान पर कोई
करता हो लगातार चोट
ना जाने कितनी बातें
कितने एहसास
कितनी भावनाएं
दफ्न होती है
उसके सीने में
ना चाहते हुए भी
कह देती है वो
एक सैलाब सा जो होता है
उसके सीने में
पर कह देने के बाद
खुद अफसोस करती है
और सोचती है
क्यों कह दिया
वह सब जो सीने में था
एहसास की तरह
अब ना रहा उसका कोई मुल्य
कह देने के बाद
कितना आसान होता है
एक पुरूष के लिए
रिश्ता बना लेना किसी के साथ
और यह कहते हुए खत्म भी कर देना कि
'तु्म्हें अंधेरे में नहीं रखना चाहता,
जो हुआ गलत हुआ,
माफी चाहता हूं'
कितना आसान होता है
एक पुरूष के लिए माफी मांग लेना
हालांकि वह माफी भी
काफी सोच समझकर मांगता है
नफा-नुकसान देखने के बाद
यह सोचते हुए कि कल को
वह दोषी ना करार दिया जाए
उसका दामन साफ रहे
कितना आसान होता है
एक पुरूष के लिए
अपना दामन साफ रखना

Monday 8 July 2013

अपना सा था वो दोस्त...

(इस खूबसूरत चित्र के फोटोग्राफर हैं राजू गुप्ता)

तुम्हारी बातों को सुनकर ना जाने क्युं मन भर आया था..आंखों में कुछ चमकते मोती भी इकट्ठा हो गए थे...रूख के दूसरी तरफ कर लेने के बाद भी अपने आंखों में आए आंसुओं को तुमसे छुपाने में नाकाम रही थी...और सिर्फ आंसुओं को छुपाने में ही क्यों, कई जगह तो नाकाम रही थी मैं...शायद उस दोस्ती में भी जो तुमसे अंजाने में ही बंध गया था...कहां बांधा कभी खुद को तुम्हारे सामने..कि हमेशा लगता रहा तुम जुदा नहीं हो मुझसे...मेरा ही अक्स हो...और नाजाने कितनी बार दिल दुखाया तुम्हारा..इसी नादानी में...ऐसा महसूस हुआ था कि तुम्हारे साथ खुश होती हूं...ज्यादा, बहुत ज्यादा...तुम भी तो खुश नज़र आते थे हमेशा...कितनी शामें यूंही बिताई थी साथ में...बेवजह, कुछ हासिल ना हो जानेवाली बातों के बीच...

तुमने कहा था, ‘अब हम नहीं मिलेंगे, लौटा दुंगा तुम्हारी सभी चीजें जो तुमने दी थी मुझे,’ यह कहकर ना जाने किस हिसाब किताब में जुट गया था वो...टूथपेस्ट, टूथब्रश, वो किताबें और पानी के बहुत से बॉटल, तुम्हारा दिया हुआ आचार और हां वो चॉकलेट भी, जो तुमने अभी हाल ही में दिया था...ना जाने क्या क्या कहता रहा था वो...ये कहते हुए उसकी आंखों में चमकते पानी को महसूस किया था मेरे दिल ने... मैंने सोचा कह दूं उससे कि बस इतनी ही चीजें...शायद तुम्हें याद नहीं...आओ याद दिलाऊं...लौटा देना इन चीजों के साथ उस वक्त को भी जो व्यतीत किए थे तुम्हारे साथ...उन हंसी के पलों को, और उन पलों को भी जिसमें आंसू बिखेरे थे...क्या उन पलों को लौटा पाओगे जो खर्च किए हैं तुम पर...उन लम्हातों को जिनमें ना जाने कितनी बार सोचा था तुम्हारे बारे में...सच, हिसाब किताब में बहुत बुरे हो तुम...

कभी कभी अतीत के पन्नों को पलटना इतना अजीब क्यों लगता है? हंसी के पल होते हुए भी आंखों को नम कर जाते हैं यह बीते हुए पल...किसी के बिछड़ने क दर्द होता है तो किसी नए के मिलने की खुशी...बार बार क्यों लगता है कि वक्त फिर लौट गया है वहीं जहां से बढ़ आई थी आगे...बहुत आगे...वक्त भी कैसा अजीब है...किसी रूप बदलते बहरूपिया की तरह...पर यह बहरूपिया भी अच्छा लगता है कि अपने बदलते कई चेहरों के साथ हमें बार बार मजबूत होने की ताकत देता है...खुद से मुहब्बत करना सिखाता है...नफरत करना सिखाता है...गिरना और फिर संभलना सिखाता है...

Saturday 8 June 2013

ज़िंदगी यूं ही चलती रहे...





तुमसे कितनी बार कहा है कि मत किया करो ऐसा, मत बांधो खुद को किसी एक बंधन में क्योंकि मुझे एहसास होता है कि तुम घुटने लगते हो. कभी कभी तो तुम्हारी यह घुटन इतनी बढ़ जाती है कि तुम बेचैन हो जाते हो. कई बार कहा है पहले, आज फिर कह रही हूँ अगर दिल में कोई बात कोई दर्द होता है तो कह दिया करो कि खुद को आज भी तुम्हारी दोस्त समझती हूँ. पर तुमने ना जाने जिंदगी को किस परिभाषा में बांध रखा  है.

मैं पहले समझती थी कि जिंदगी इतनी आसान नही जितनी हम उसे समझते हैं पर आज मैं ही कह रही हू़ कि जिंदगी उतनी मुश्किल भी नहीं जितनी तुम उसे समझते हो. वैसे भी बताओ क्या मिला तुम्हे जिंदगी को इतनी संजिदगी से देखने के बाद. तकलीफ में हो ना, बेचैन भी हो? फिर क्युँ ना कुछ बच्चों की तरह कुछ पागलों की तरह मतलब मेरी तरह बर्ताव कर लो. शायद तुम्हे अच्छा लगे? पर ये भी जानती हू़ नहीं मानोगे तुम मेरी किसी बात को. कहाँ माना है तुमने आजतक? वैसे भी मेरी किसी बात पर कहाँ एतबार है तुम्हे. क्यु़ं दूर रखा है खुद को खुशियों से? मां से बाते करो, कभी पापा की भी तो सुनो, झांकने की कोशिश करो उनमें, शायद दिखे तुम्हेँ कि वो तुमसे कितनी मुहब्बत करते हैं. समझ जाओगे कभी तो कि तुम्हारे आसपास ऐसे कई लोग हैं जो तुमसे बहुत मुहब्बत करते हैं क्योंकि मेरे दोस्त दुनिया में मुहब्बत का सिर्फ एक ही रूप नहीं होता. समझो कभी तो कि खुशियों से तुम्हारा भी सरोकार है. खुद को बहने दो, कभी तो थंडी हवा को महसूस करो. 

यूँ ही नहीं कि तुम्हें बस यही कहना चाहती हू़, कहना तो बहुत कुछ है पर लफ्ज़ों की जुबान भी कासिर है. कल तुमसे बात हुई, शायद तुम्हे एहसास भी नही होगा कि तुम्हारे उस तरह चिल्लाने से मुझे कितनी तकलीफ पहुँची होगी. इसलिए नहीं कि तुम मुझपर चीख रहे थे इसलिए कि तुम्हारी उस झुंझलाहट में तुम्हारी बेचैनी, तुम्हारी कैफियत और तुम्हारे दर्द को समझ सकती थी मैं. पर मैं क्या कर सकती थी बस तुम्हे दिलासा देने के अलावा? इतना सबकुछ कह देने के बाद इंसान हल्का महसूस करता है पर मैं समझती हूँ कि तुम्हारी बेचैनी कम नही हुई होगी. ना जाने किस चीज की तलाश में भटक रहे हो? आस पास देखो शायद तुम्हे वो चीज़ तुम्हारे बहुत ही करीब मिले. 

कहना तो यह भी है कि किसी को भुलाने के लिए यह याद रखना कि उसे भुलाना है, बहुत अजीब बात है. कभी नही भूल पाओगे इस तरह. मेरी बात मानो और मत बांधो खुद को इतनी जंजीरो में, इतने उसूलों में...