Thursday 30 June 2011

क्या हम आज़ाद हैं?

कहने को तो हम सब आज़ाद हैं पर क्या हम सच में आज़ाद हैं? ये सवाल अगर हम खुद से करतें हैं तो मन में उथल पुथल मच जाती है...नज़रें हकीकत से मुंह छुपाने लगतीं हैं...आओ हम कह दें खुद से कि हम आज़ाद नहीं...क्यों झिझक हो मन में सच को अपनाने से...क्या मिल जाएगा हमें यूँ कतराने से...आओ सारे बंधन तोड़ दें, तोड़ दें वो सारी दीवारें और सरहदें...जो खुलकर हमें जीने नहीं देतीं...चलो घर से बाहर निकलें...सड़कों पर बेवजह घूमें...चिल्लाएं जोर जोर से...सिगरेट अगर पीतें हैं तो आओ फिर सुलगाएं...लें लंबे कश...परेशानियों को धुआं धुआं कर दें...आओ निकल आयें उस चादर से जिसने हमें ढक रख्खा है...चादर के साथ सारे डर को भी लात मार दूर ढकेल दें...अपनी उमंगों, ख्वाहिशों को एक नया पंख दें...आओ फिर उची उड़ान उडें...क्यों रख्खे मन में अपने जज्बातों को छुपाकर...क्यों बुने एक घेरा अपने इर्द गिर्द...क्यों बाँध दें खुद को एक दायरे में...चलो सारे कंगन तोड़ दें...सही मायने में खुद को आज़ाद बनाएं...न हो गुलाम किसी चीज़ के...न कार के न सरकार के...न अचार के न अपने विचार के...आओ सारी हदें तोड़ दें...उन सोचों को उन रिवाजों को...जो बाँध देती है हमें एक दायरे में...आओ निकल चलें इस दायरे से...दूर...बहुत दूर...!!!

Tuesday 28 June 2011

छोड़ आई हूँ खुद को उसी बस स्टॉप पर...


लगता है छोड़ आई हूँ खुद को उसी बस स्टॉप पर...जहां कल आखिरी बार तुम्हें खुद से जुदा होते हुए देखा था...तुम तो चले गए पर मेरी निगाहें तुम्हारा पीछा करती रहीं...तुम्हारे उस आखिरी कदम तक...जब तक के तुम मेरी नज़रों से ओझल नहीं हो गए...तुम चले गए पर मै आज भी वहीँ खडी हूँ...तुम्हारे उसी एक स्पर्श के साथ...तुम्हारी उसी एक आखिरी निगाह के साथ...जो तुमने ना जाने क्या छुपाने के लिए मुझसे नहीं मिलाई थी...नहीं ये गलत है की चाहती हूँ तुमको...पर नही जानती ये क्या एहसास है...क्यूँ मन बेचैन है...बैठी हूँ उसी कमरे में जहां घंटों हम साथ होते थे...अपनी ही दुनिया में खोये हुए से... याद आता है रह रहकर वो तुम्हारी बातों पर मेरा खिलखिलाकर हंस देना...और तुम्हारा कनखियों से मुझे वो चुप रहने का इशारा करना...फिर वो अचानक ही ख़ामोशी की दुनिया में दोनों का खो जाना...वो एक बूँद पानी की बात पर तुम्हारा मेरा मज़ाक उड़ना...वो बंच की बातें...शायद तुम्हारे अलावा कोई दूसरा समझ सके...पर आज तुम्हारे बिना हर चीज़ बड़ी अधूरी सी लग रही है... इस कमरे की वो छोटी सी कुर्सी तुम्हारा इंतज़ार कर रही है...मोनिटर की नज़रें तुम्हें ही ढूंढ  रही हैं...तुम शायद अपनी दुनिया में खो गए होगे...नहीं आती होगी तुम्हे हमारी याद...

पर मेरी निगाहों को इंतज़ार है तुम्हारा...काश तुम आते मेरे पीछे चुपके से खड़े हो जाते...मेरी आँखों को अपने हाथों से छुपाकर खुद को पहचान ने के लिए जोर देते...और मैं जानकर भी तुम्हे पहचान ने का नाटक करती...फिर अचानक ही नाम तुम्हारा लेकर पीछे मुडती...तो मुस्कुराता हुआ चेहरा तुम्हारा नज़रों के सामने पाकर...खुशी से झूम उठती...जानती हूँ मैं तुम नहीं हो यहाँ... फिर भी तुम्हे देखने की ख्वाहिश में अचानक ही पीछे देखा मैंने...ना जाने क्या सोचकर...तो सपनो की दुनिया को हकीकत में ना पाकर मन फिर बेचैन हो उठा...फिर तुम्हारी यादों का दामन मेरे हाथों में ठहर गया...फिर चारो तरफ सन्नाटा पसर गया...तुम नही हो यहाँ...कहीं नहीं हो...पर फिर भी यहीं हो...मेरे पास...बहुत पास..!!!

यादें इमली शक्कर सी...



हर बार सोचती हूँ की जिंदगी बड़ी उलझी हुई है...नहीं अनूप तुम्हारी नहीं मेरी...हाँ मैं अपनी ही बात कर रही थी...दरअसल जब भी किसी से रिश्ता बनाया मैंने...तकलीफ, दर्द और धोखा के अलावा कुछ भी नहीं पाया है ...हर बार जब भी किसी से उम्मीद और प्यार का रिश्ता बनता है...बड़ी आसानी से लोग मेरे उम्मीदों का घरौंदा तोड़ देते हैं...इसलिए मन बहुत घबराता है किसी से रिश्ता जोड़ने से पहले...हाँ, हाँ मुझे पता है तुम सोच रहे होगे की जब से लिखने की शुरुआत हुई है...तब से सिर्फ अपने बारे में ही लिखे जा रही हूँ...तुम्हारे बारे में अभी सोचना भी शुरू नहीं किया है...तो जनाब थोडा सब्र रखिये...क्यूंकि अब दवात की स्याही सिर्फ आप पर ही खर्च होगी...जी हाँ जब पहली बार एम.सी.जे. की क्लास में लोगों से खुद को कटा हुआ पाया तो पीछे की सीट पर जाकर खामोशी से बैठ गयी...मन घबरा रहा था...नहीं जानती थी क्यूँ...पर तुम्हारा अचानक ही मेरे पास आकर बैठ जाना फिर मुझसे बातें करना...मुझे बहुत अच्छा लगा...प्लीज़ इस गलतफहमी में मत रहना की तुमसे इम्प्रेस हो गई थी...दरअसल बात ऐसी थी की मेरे जुबान को खामोश रहने की आदत नहीं...और उस दिन काफी देर खामोश रहने से मुझे बड़ी तकलीफ हो रही थी...ऐसे में तुम्हारा बात करना एक रिमझिम फुहार के अनुभव जैसा था...पर दूसरे दिन तुमसे मुखातिब होकर बुरा लगा...क्युंकि जिस जगह से मैं आई थी वहाँ आप कहकर इज्ज़त देने का दस्तूर था...इसलिए तुम्हारा तू कहकर बात करना नागवार गुज़रा...फिर सोने पे सुहागा ये की...तुम्हारा प्रेज़न्टेशन में अपनी स्पीच भूल जाना... मेरी उम्मीदों पर पानी फिर जाने जैसा था...अरे नहीं...बस पहचान की वजह से ऐसा लगा...कुछ और मत समझ लेना...प्लीज़.

कुछ दिनों बाद चैतन्या आ गई और हमारी अपनी ही एक दुनिया थी...जहां तुम्हारी ज़रूरत कभी महसूस नहीं हुई...पर तुमसे एक लगाव था...अपनेपन का एहसास...ये शायद इसलिए भी था क्युंकि हम हिन्दीभाषी थे...फिर धीरे धीरे जान पहचान दोस्ती में तब्दील हुई...तुम वो पहले शख्स थे जिस से मैं रात में भी चैट कर सकती थी( हाँ मेरे लिए ये बड़ी बात है)...एक बार यूँही तुमने बातों ही बातों में एक सवाल किया था...जिसके बाद काफी देर तक मैं उन लफ़्ज़ों के मायने समझने की कोशिश करती रही...नही मुझे वो सवाल याद नहीं...सवाल बहुत सीधा सा ही था...पर पता नहीं क्यूँ मैं बेचैन हो गयी थी...एक बात हमेशा महसूस होता की तुम्हें लफ़्ज़ों के साथ खेलने का बहुत शौक है...बातों को घुमा फिरा कर करने का हुनर खूब जानते हो तुम...पढाई क्या की बस सिलेबस समझते समझते साल फिसलते रेत की तरह हाथों से निकल गया...छुट्टियाँ आ गई और मैं अपनी ज़िन्दगी में हमेशा की तरह मशरूफ हो गई...पर जब भी मन उदास होता या कोई परेशानी परेशां करती तो तुम्हारी याद आ जाती...और तुम्हारा एक मैसेज मेरे लिए बड़ा सहारा होता...सारी उलझने ना जाने कहाँ छू मंतर हो जातीं...Afternoonvoice Newspaper में काम करना शुरू किया तो...यूवा हिन्दुस्तान पत्रिका की ज़िम्मेदारी मेरे सुपुर्द की गई...Vaidehi mam ने कहा कि किसी को बुला लो अपने साथ काम करने के लिए...तो सबसे पहला नाम और चेहरा जो मेरे दिमाग और नज़रों के सामने आया ...वो तुम्हारा ही था...तुम आए और उसी दिन तुम्हारी वजह से मैम ने मुझसे उची आवाज़ में बात की...बहुत बुरा हुआ था मेरे साथ...है ना...

कालेज और दफ्तर...दो जगहें...एक दूसरे से बिल्कुल अलग...एक जगह मौज मस्ती तो दूसरी जगह जिम्मेदारियों का एहसास...पर तुम्हारे बर्ताव में बिल्कुल भी परिवर्तन नहीं आया था...तुम तब भी मेरे दोस्त थे और उस वक्त भी जब दफ्तर में हुआ करते थे...तुम्हारे साथ काम करते हुए बहुत सारी बातों और एहसासों से रूबरू हुई मैं...तुम्हे मैंने कहा भी था...कई रूप में पाया मैंने तुम्हें...कभी एक भाई की तरह लगे...डाटते तो पिता की तरह लगते...और कभी यूँ भी लगता की एक लड़की अपने हमसफ़र में जो भी खूबियाँ देखना चाहती है...वो सब तुम में है...शायद तुम्हारे लिए मेरे जज्बातों को समझना मुश्किल हो...बड़ी उलझी हुई सी कैफियत रहती है मेरी...सफाई पेश करना हमेशा से मेरे लिए कठिन रहा है...तुम्हारे लिए दिल में इज्ज़त की भावना हमेशा से थी और आज भी है...पर एक दिन वो भी आया जब मुझे लगा...की शायद मेरी जगह बस एक दायरे तक सिमट कर रह जाती है तुम्हारी ज़िन्दगी में...मुझे अधिकार नहीं...राजू का जन्मदिन था...तुम में और श्वेता में न जाने किस बात पर अनबन हो गई थी...मैं चाहती थी की उसे यूं अकेले न जाने दिया जाए...पर तुम्हे लगा की शायद मैं तुम्हें समझ नहीं पा रही हूँ...और तुम मुझ पर चिल्ला उठे थे...मुझे याद नहीं मेरे किसी दोस्त ने मुझे रुलाया हो...पर तुमने रुलाया उस दिन...शायद ये काबीलियत भी तुम में ही है...क्युकि मुझे रुलाना इतना आसान नहीं...एक बात ज़रूर कहना चाहूंगी की तुम्हारी हड्डियाँ चटकाने की आदत मुझे बहुत परेशां करती है...संभल जाओ कहीं ऐसा ना हो हड्डियाँ चटकाते चटकाते तुम्हारी गर्दन ही मुड़ जाये...कैसे लगोगे तुम...भयंकर ना...और हाँ कभी कभी तुम उंची आवाज़ में बात करते हो तो बहुत बुरे लगते हो...अब तुम कहोगे की ये तो तुम्हारा डायलाग ही है की बहुत बुरे लगते हो...

ना जाने क्यूँ...ना चाहते हुए भी लोग मेरी ज़िन्दगी में आ जाते हैं...और मैं कुछ नहीं कर पाती...पर सबकुछ याद रहेगा मुझे...वो तुम्हारा चाय की चुस्कियों के साथ इधर उधर की बातें करना...साथ में खाना खाना...हँसी मज़ाक करना...तुम्हारा डांटना...और आँखों की वो नमी भी...सब कुछ...

मेरी बहुत सारी दुआएं मेरे दोस्त के लिए...उस दोस्त के लिए जिसने मुझे बहुत सी यादें दी...इमली शक्कर सी...अपनी इस पागल दोस्त का नाम अपनी ज़िन्दगी की डायरी में शामिल रखना...बस यही कहना चाहूंगी तुमसे...भले ही चले जाओगे तुम मेरी ज़िन्दगी से...पर मेरे पास...मेरे केबिन में...उस चाय के टेबल पर...उतने ही रह जाओगे...याद करोगे मुझे हमेशा तो नहीं...पर कभी तो सोचोगे...!!!