Tuesday 28 June 2011

यादें इमली शक्कर सी...



हर बार सोचती हूँ की जिंदगी बड़ी उलझी हुई है...नहीं अनूप तुम्हारी नहीं मेरी...हाँ मैं अपनी ही बात कर रही थी...दरअसल जब भी किसी से रिश्ता बनाया मैंने...तकलीफ, दर्द और धोखा के अलावा कुछ भी नहीं पाया है ...हर बार जब भी किसी से उम्मीद और प्यार का रिश्ता बनता है...बड़ी आसानी से लोग मेरे उम्मीदों का घरौंदा तोड़ देते हैं...इसलिए मन बहुत घबराता है किसी से रिश्ता जोड़ने से पहले...हाँ, हाँ मुझे पता है तुम सोच रहे होगे की जब से लिखने की शुरुआत हुई है...तब से सिर्फ अपने बारे में ही लिखे जा रही हूँ...तुम्हारे बारे में अभी सोचना भी शुरू नहीं किया है...तो जनाब थोडा सब्र रखिये...क्यूंकि अब दवात की स्याही सिर्फ आप पर ही खर्च होगी...जी हाँ जब पहली बार एम.सी.जे. की क्लास में लोगों से खुद को कटा हुआ पाया तो पीछे की सीट पर जाकर खामोशी से बैठ गयी...मन घबरा रहा था...नहीं जानती थी क्यूँ...पर तुम्हारा अचानक ही मेरे पास आकर बैठ जाना फिर मुझसे बातें करना...मुझे बहुत अच्छा लगा...प्लीज़ इस गलतफहमी में मत रहना की तुमसे इम्प्रेस हो गई थी...दरअसल बात ऐसी थी की मेरे जुबान को खामोश रहने की आदत नहीं...और उस दिन काफी देर खामोश रहने से मुझे बड़ी तकलीफ हो रही थी...ऐसे में तुम्हारा बात करना एक रिमझिम फुहार के अनुभव जैसा था...पर दूसरे दिन तुमसे मुखातिब होकर बुरा लगा...क्युंकि जिस जगह से मैं आई थी वहाँ आप कहकर इज्ज़त देने का दस्तूर था...इसलिए तुम्हारा तू कहकर बात करना नागवार गुज़रा...फिर सोने पे सुहागा ये की...तुम्हारा प्रेज़न्टेशन में अपनी स्पीच भूल जाना... मेरी उम्मीदों पर पानी फिर जाने जैसा था...अरे नहीं...बस पहचान की वजह से ऐसा लगा...कुछ और मत समझ लेना...प्लीज़.

कुछ दिनों बाद चैतन्या आ गई और हमारी अपनी ही एक दुनिया थी...जहां तुम्हारी ज़रूरत कभी महसूस नहीं हुई...पर तुमसे एक लगाव था...अपनेपन का एहसास...ये शायद इसलिए भी था क्युंकि हम हिन्दीभाषी थे...फिर धीरे धीरे जान पहचान दोस्ती में तब्दील हुई...तुम वो पहले शख्स थे जिस से मैं रात में भी चैट कर सकती थी( हाँ मेरे लिए ये बड़ी बात है)...एक बार यूँही तुमने बातों ही बातों में एक सवाल किया था...जिसके बाद काफी देर तक मैं उन लफ़्ज़ों के मायने समझने की कोशिश करती रही...नही मुझे वो सवाल याद नहीं...सवाल बहुत सीधा सा ही था...पर पता नहीं क्यूँ मैं बेचैन हो गयी थी...एक बात हमेशा महसूस होता की तुम्हें लफ़्ज़ों के साथ खेलने का बहुत शौक है...बातों को घुमा फिरा कर करने का हुनर खूब जानते हो तुम...पढाई क्या की बस सिलेबस समझते समझते साल फिसलते रेत की तरह हाथों से निकल गया...छुट्टियाँ आ गई और मैं अपनी ज़िन्दगी में हमेशा की तरह मशरूफ हो गई...पर जब भी मन उदास होता या कोई परेशानी परेशां करती तो तुम्हारी याद आ जाती...और तुम्हारा एक मैसेज मेरे लिए बड़ा सहारा होता...सारी उलझने ना जाने कहाँ छू मंतर हो जातीं...Afternoonvoice Newspaper में काम करना शुरू किया तो...यूवा हिन्दुस्तान पत्रिका की ज़िम्मेदारी मेरे सुपुर्द की गई...Vaidehi mam ने कहा कि किसी को बुला लो अपने साथ काम करने के लिए...तो सबसे पहला नाम और चेहरा जो मेरे दिमाग और नज़रों के सामने आया ...वो तुम्हारा ही था...तुम आए और उसी दिन तुम्हारी वजह से मैम ने मुझसे उची आवाज़ में बात की...बहुत बुरा हुआ था मेरे साथ...है ना...

कालेज और दफ्तर...दो जगहें...एक दूसरे से बिल्कुल अलग...एक जगह मौज मस्ती तो दूसरी जगह जिम्मेदारियों का एहसास...पर तुम्हारे बर्ताव में बिल्कुल भी परिवर्तन नहीं आया था...तुम तब भी मेरे दोस्त थे और उस वक्त भी जब दफ्तर में हुआ करते थे...तुम्हारे साथ काम करते हुए बहुत सारी बातों और एहसासों से रूबरू हुई मैं...तुम्हे मैंने कहा भी था...कई रूप में पाया मैंने तुम्हें...कभी एक भाई की तरह लगे...डाटते तो पिता की तरह लगते...और कभी यूँ भी लगता की एक लड़की अपने हमसफ़र में जो भी खूबियाँ देखना चाहती है...वो सब तुम में है...शायद तुम्हारे लिए मेरे जज्बातों को समझना मुश्किल हो...बड़ी उलझी हुई सी कैफियत रहती है मेरी...सफाई पेश करना हमेशा से मेरे लिए कठिन रहा है...तुम्हारे लिए दिल में इज्ज़त की भावना हमेशा से थी और आज भी है...पर एक दिन वो भी आया जब मुझे लगा...की शायद मेरी जगह बस एक दायरे तक सिमट कर रह जाती है तुम्हारी ज़िन्दगी में...मुझे अधिकार नहीं...राजू का जन्मदिन था...तुम में और श्वेता में न जाने किस बात पर अनबन हो गई थी...मैं चाहती थी की उसे यूं अकेले न जाने दिया जाए...पर तुम्हे लगा की शायद मैं तुम्हें समझ नहीं पा रही हूँ...और तुम मुझ पर चिल्ला उठे थे...मुझे याद नहीं मेरे किसी दोस्त ने मुझे रुलाया हो...पर तुमने रुलाया उस दिन...शायद ये काबीलियत भी तुम में ही है...क्युकि मुझे रुलाना इतना आसान नहीं...एक बात ज़रूर कहना चाहूंगी की तुम्हारी हड्डियाँ चटकाने की आदत मुझे बहुत परेशां करती है...संभल जाओ कहीं ऐसा ना हो हड्डियाँ चटकाते चटकाते तुम्हारी गर्दन ही मुड़ जाये...कैसे लगोगे तुम...भयंकर ना...और हाँ कभी कभी तुम उंची आवाज़ में बात करते हो तो बहुत बुरे लगते हो...अब तुम कहोगे की ये तो तुम्हारा डायलाग ही है की बहुत बुरे लगते हो...

ना जाने क्यूँ...ना चाहते हुए भी लोग मेरी ज़िन्दगी में आ जाते हैं...और मैं कुछ नहीं कर पाती...पर सबकुछ याद रहेगा मुझे...वो तुम्हारा चाय की चुस्कियों के साथ इधर उधर की बातें करना...साथ में खाना खाना...हँसी मज़ाक करना...तुम्हारा डांटना...और आँखों की वो नमी भी...सब कुछ...

मेरी बहुत सारी दुआएं मेरे दोस्त के लिए...उस दोस्त के लिए जिसने मुझे बहुत सी यादें दी...इमली शक्कर सी...अपनी इस पागल दोस्त का नाम अपनी ज़िन्दगी की डायरी में शामिल रखना...बस यही कहना चाहूंगी तुमसे...भले ही चले जाओगे तुम मेरी ज़िन्दगी से...पर मेरे पास...मेरे केबिन में...उस चाय के टेबल पर...उतने ही रह जाओगे...याद करोगे मुझे हमेशा तो नहीं...पर कभी तो सोचोगे...!!!

6 comments:

  1. padh kar achha laga... aankhein bhar ayi !!! tumse thodi si jalan bhi hui... ki aaj tak tumhari aur anoop ki dosti me koi adchanien nahi ayi !!! lekin dil se dua karti hoon ki koi adchan aye bhi nahi !!! iss duniya me kam se kam koi to aisi ladki ho jisse uski dosti tahe dil se naseeb ho... koi to ladki ho iss duniya me, jise usne usse nafrat karne pe majboor na kiya ho... khushnaseeb ho tum, aur iss baat ki khushi hai mujhe...

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    1. thank you very much aabha....tumhare comment ko dekhkar lagta hai ki ekdam dil se likha hai.. :)

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  2. touchwood..

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