Saturday 25 February 2012

मेरी लड़खड़ाती सँभलती सोच…



कई बार दिल ने चाहा कि कह दें क्या चल रहा है दिलो दिमाग में...अपनी लड़खड़ाती. सँभलती सोच को आज समझा है मैने...महसूस भी किया है अपनी कशमकश को...पर होठों पर जो सहमे से लफ्ज़ है...खुद को कह देने में कहाँ मोतबर हैं...खलिश भी है, एक बंदिश भी...और खुद की खुद से रंजिश भी...सलीका नहीं मुझे अपने जज़्बातों को कहने का...मलाल भी होता है यू़ खामोश रहने का...समझ तो गई हूँ कि क्या कहना चाहती हूँ पर अब भी लगता है...सरोकार नहीं जो कहना है...शायद मुझे अपने इसी खोल में रहना है...तुम्हारा अक्स उभरता है और फिर धूंधला हो जाता है...समझ नही सकती की कौन से लम्हे किस पर भारी हैं...तुम्हारे साथ बिताए खुशियों के या याद में तुम्हारे पल पल तड़पने के...ऐसा लगता है कभी कभी...तुमको चाहती हूँ याद करना तो याद करती हूँ...पर अपनी डायरी को जब देखती हूँ तो बेइख्तियारी में लिखे तुम्हारे नाम को पढ़कर सोचती हूँ... आ जाते हो सोचों में जब आना चाहते हो... पल पल साथ रहते हो मेरा इख्तियार नहीं रहता अपनी इस कैफियत पर...मेरा बस नही चलता अब  खुद पर...इतना भी नहीं कि तुम्हे खुद से और अपनी सोचों से दूर कर सकूँ...तुम्हें सोचे बिना एक पल जी सकूँ...शायद मेरी इस बेबसी पर तुम्हे हँसी आ रही होगी...पर जान लो...खुश मैं भी हूँ यूँ बेबस होकर...तुम्हारी याद में हारकर...अच्छा लगता हैं युंही तुम्हे सोचते हुए...तुम्हारे साथ युंही बहते हुए...


Friday 17 February 2012

चलो एक बार फिर से...

तुम आए और चले गए, एक बार पलट कर देखा भी नही कि मेरी नज़रें कुछ पूछ रहीं हैं तुमसे. कुछ सवाल करना चाहती हैं, कुछ सुनना चाहती हैं तुमसे. पर तुम्हारी वो अजनबियत ना जाने कितना कुछ कह गई बिना कुछ कहे. मैं बस देखती रही, सोचती रही कि तुम वही हो या फिर कुछ जताना चाहते हो. कुछ एहसास, कुछ गलतियाँ बताना चाहते हो. ज़हन में यह भी उभरते रहा कि क्युं सोच रही हूँ तुम्हे. क्युं परवाह कर रही हूँ, क्युं फर्क पड़ रहा है मुझे, इस अंदाज से तुम्हारे. पर फर्क तो पड़ता है, मेरे लाख इंकार करने से क्या हो सकता है? लाख चाहने के बावजूद भी की भूल जाऊँ तुम्हे. तुम ही तुम हो सोच में, ज़हन में. कई बार तुम जब चले जाते हो मुझसे रुख फेर कर. मन तो करता है तुम्हारे पिछे जाऊँ, तुमसे पुछूँ, क्युं करते हो ऐसा? क्या मिलता है तुम्हे, मुझे रुला के? मुझे तड़पा के? पर ये भी जानती हूँ कोई हक नहीं रहा है अब मुझे ऐसा करने का. फिर ये भी याद आता है कि नाराज़गी है मेरी तुमसे, तुम्हारी मुझसे या फिर दोनों की खुद से. फिर कभी कभी यूँ भी होता है कि कहना बहुत कुछ होता है पर कभी तुम्हारी तो कभी अपनी हदों की सोचती हूँ. पर मन के किसी कोने में ये भी उम्मीद, ये भी आस रहती है कि देखोगे कभी तो पलट कर तुम..मेरे चेहरे पर खिले हुए मुस्कान को छोड़ कभी तो मेरी आँखों में तैरते हुए दर्द को पहचानोगे तुम. कभी तो, कभी तो समझोगे या फिर तुम भी जानते हो पर जताना नही चाहते?