Friday 17 February 2012

चलो एक बार फिर से...

तुम आए और चले गए, एक बार पलट कर देखा भी नही कि मेरी नज़रें कुछ पूछ रहीं हैं तुमसे. कुछ सवाल करना चाहती हैं, कुछ सुनना चाहती हैं तुमसे. पर तुम्हारी वो अजनबियत ना जाने कितना कुछ कह गई बिना कुछ कहे. मैं बस देखती रही, सोचती रही कि तुम वही हो या फिर कुछ जताना चाहते हो. कुछ एहसास, कुछ गलतियाँ बताना चाहते हो. ज़हन में यह भी उभरते रहा कि क्युं सोच रही हूँ तुम्हे. क्युं परवाह कर रही हूँ, क्युं फर्क पड़ रहा है मुझे, इस अंदाज से तुम्हारे. पर फर्क तो पड़ता है, मेरे लाख इंकार करने से क्या हो सकता है? लाख चाहने के बावजूद भी की भूल जाऊँ तुम्हे. तुम ही तुम हो सोच में, ज़हन में. कई बार तुम जब चले जाते हो मुझसे रुख फेर कर. मन तो करता है तुम्हारे पिछे जाऊँ, तुमसे पुछूँ, क्युं करते हो ऐसा? क्या मिलता है तुम्हे, मुझे रुला के? मुझे तड़पा के? पर ये भी जानती हूँ कोई हक नहीं रहा है अब मुझे ऐसा करने का. फिर ये भी याद आता है कि नाराज़गी है मेरी तुमसे, तुम्हारी मुझसे या फिर दोनों की खुद से. फिर कभी कभी यूँ भी होता है कि कहना बहुत कुछ होता है पर कभी तुम्हारी तो कभी अपनी हदों की सोचती हूँ. पर मन के किसी कोने में ये भी उम्मीद, ये भी आस रहती है कि देखोगे कभी तो पलट कर तुम..मेरे चेहरे पर खिले हुए मुस्कान को छोड़ कभी तो मेरी आँखों में तैरते हुए दर्द को पहचानोगे तुम. कभी तो, कभी तो समझोगे या फिर तुम भी जानते हो पर जताना नही चाहते?  

3 comments:

  1. bahut khoob... achcha likhti ho...

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  2. व्यक्तिगत अनुभव प्रतीत होता है जियाजी...

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  3. anoop ji main wahi likhti hun jo zindagi mijhe dikhati hai...haan ye alag baat hai, wo mere aas paas ke logon se bhi judi hui ho sakti hai...

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