Thursday 10 May 2012

कहने को थीं जो बातें...



 
बीते हुए दिनों का अंधेरा, बेचैनिया, दर्द वर्तमान समय की खुशियों को मुकम्मल नहीं होने देता और ऐसे में क्या बात जब बीता कल बार बार यादों के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो जाए. नहीं, नहीं जानती क्युं खुद ही अपने हाथों से ज़ंजीरें बांध रखीं हैं पैरों में...खुशियों से वाबस्ता तो मेरा भी है...मैं भी उड़ना चाहती हूं, नापना चाहती हूं आकाश की उचाईंयों को...फिर क्यों यह मन बांध देता है मुझे कई हदों में, कई उलझनों में...कितना अच्छा हो जो हमें भी भूलने की आदत सी पड़ जाए...वो लम्हात जो दर्द देते हैं, टीस पैदा करते हैं...

कई बार बंद की वो किताब जिसमें थे हम...पर खुल ही जाते हैं पन्ने ना जाने कैसी हड़बड़ाहट में...आमना सामना हो ही जाता है उन लम्हों से जो बिताए थे कभी साथ-साथ...पर उन लम्हों को याद भर किया जा सकता है छुआ या पाया नहीं जा सकता...पर उन लम्हातों को याद करने से भी क्या फायदा...हासिल कुछ नहीं होगा...बस खलिश रह जाएगी...अनंत तक...

तुम भी कहां सुकून से होगे?...जानती हूं कि तुम्हारी झल्लाहट, उस अजनबीपन ने तुम्हे भी परेशान किया होगा...तुम्हारा हसना, किताबों में खो जाना सुकून देता होगा तुम्हे पर वो भी कुछ लम्हों के लिए ही क्योंकि जानते तुम भी हो कि मन को बहुत देर तक बंद दरीचों में नहीं रखा जा सकता..खैर उन लम्हात को आंसुओं से भिगोने पर भी हासिल क्या, कुछ नहीं है...
कहनें को थीं जो बातें...कहां कह पाई...वापस नहीं चाहती करना याद...तुम्हें ना तुम्हारी यादों को...पर फिर सोचती हूं कि कभी जो फिर मुलाकात हुई तो क्या इतनी देर से जो गुस्सा तुम पर आ रहा है, वह कायम रह पाएगा...जो दर्द दिल महसूस कर रहा है वो साबुत रह पाएगा...पर दुआ यही है कि फिर मुलाकात ना हो कभी किसी मोड़ पर तुमसे...पड़े रहें वो सपने टूटे, आसू बिखरे रहे...गुस्सा उफनता रहे...तब कहीं जाकर बंद होंगे दरीचे मन के... 

फिर भी कहीं तुमको सुख मिल रहा होगा तो कुछ बुंदें हमें भी देना...क्योंकि आज भी जीने का सलीका नहीं आया हमें...
  


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