Wednesday 17 April 2013

तुम्हारी आंखो से...



वो आसमान जो दूर दूर तक फैला है
उसका एक छोर पकड़ा है तुमने तो दूसरा हमने  भी थामा है
खिड़की से जब तुम आसमान को देखते हो
तो निहारते हम भी हैं
तुम सोचते हो कि ना जाने कहां तक फैला है इसका सिरा
रंग बड़े हसीन हैं इसमें समाए हुए
ना जाने कहां जाकर मिलते हैं इसके सिरे
तुम कहते हो जहां तुम बैठी हो
वहां से कुछ नहीं दिखता तुम्हें
हमें तो दिखता है वो खुला आसमां दूर दूर तक फैला हुआ
हमें तो दिखाई देते हैं पंक्षियों के झुंड उड़ते हुए
उनकी आवजें, जैसे सांझा कर रहे हों अपने दिनभर के अनुभव
तुम कहते हो हम नहीं देख सकते उन्हें
लेकिन अनुभव हम भी वही कर रहे हैं
जो तुम महसूस करते हो
तुम्हारे लिए तुम जुदा हो हमसे
लेकिन हमारे लिए नहीं
जब तुम आसमान को देखते हो
तो निहारते हम भी हैं
जो तुम देखते हो, देखते हम भी हैं...





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